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Sanatan Dharma: सनातन धर्म विवाद पर मद्रास हाईकोर्ट की अहम टिप्पणी, कहा- ‘बोलने की आजादी है, मगर नफरत भरे भाषण न दिए जाएं’

Sanatan Dharma: सनातन धर्म विवाद को लेकर अभी तक नेता ही टिप्पणी कर रहे थे। मगर अब इस विवाद पर मद्रास हाईकोर्ट ने भी टिप्पणी की है।

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Sanatan Dharma: देश की राजनीति में बीते कुछ दिनों से सनातन धर्म (Sanatan Dharma) एक खास चर्चा का विषय बना हुआ है। सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष इस मुद्दे पर अपनी-अपनी बात कह रहे हैं। इन तमाम बातों के बीच मद्रास हाईकोर्ट ने इस गंभीर मामले में एक अहम टिप्पणी की है। मद्रास हाईकोर्ट ने सनातन धर्म से से लेकर एक मामले की सुनवाई को दौरान कहा कि सनातन धर्म शाश्वत कर्तव्यों का समूह है। इसे एक विशेष साहित्य में नहीं खोजा जा सकता है, इसमें हर तरह की जिम्मेदारियां शामिल हैं।

मद्रास हाईकोर्ट ने सनातन धर्म पर की टिप्पणी

हाईकोर्ट ने कहा कि इसमें राष्ट्र, राजा, अपने माता-पिता और गुरुओं के प्रति कर्तव्य और गरीबों की देखभाल दिखाना जरूरी है। आपको बता दें कि इस मामले की अध्यक्षा कर रहे न्यायमूर्ति एन शेषशायी ने देश में चारों तरफ सनातन धर्म को लेकर हो रही जोरदार बहस पर अपनी चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि ये विचार जोर पकड़ रहा है कि सनातन धर्म पूरी तरह से जातिवाद और अस्पृश्यता को बढ़ावा देने का काम कर रहा है।

छुआछूत को बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं किया जाएगा

न्यायमूर्ति एन शेषशायी ने आगे कहा कि एक समान नागरिक वाले देश में छुआछूत को बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। भले ही इसे सनातन धर्म के सिधांतो के अंदर कही न कही अनुमति के साथ देखा जाता है। इसके बाद भी इसमें रहने की अनुमति नहीं हो सकती है। संविधान 17 में बताया गया है कि छुआछूत को समाप्त किया गया है।

बोलने की आजादी एक मौलिक अधिकार है

न्यायमूर्ति एन शेषशायी ने अपनी टिप्पणी में इस बात पर जोर दिया कि बोलने की आजादी एक मौलिक अधिकार है, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि नफरत भरे भाषण दिए जाएं। उन्होंने कहा कि इस तरह के भाषण से किसी की भावना आहत नहीं होनी चाहिए।

हर धर्म आस्था पर टिका होता है

उन्होंने आगे कहा कि, “हर धर्म आस्था पर टिका होता है और आस्था अपनी प्रकृति में तर्कहीनता को समायोजित करती है.” “इसलिए, जब धर्म से जुड़े मामलों में बोलने की आज़ादी का प्रयोग किया जाता है, तो किसी के लिए यह सुनिश्चित करना बेहद ज़रूरी है कि इससे किसी को भी चोट नहीं पहुंचे. दूसरे शब्दों में, बोलने की आज़ादी का मतलब घृणास्पद भाषण नहीं हो सकता है।”

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