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Muharram के पवित्र महीने में कहीं मातम तो कहीं जश्न क्यों मनाते हैं मुसलमान? जानें कर्बला का इतिहास

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Muharram 2023: मुहर्रम इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना है। कहते हैं इसी मुहर्रम के साथ ही इस्लामिक वर्ष की शुरुआत होती है। इस्लाम में आस्था रखने वालों के लिए ये महीना बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। इसको लेकर ढ़ेर सारी बाते कही जाती हैं। कहते हैं कि रमजान के बाद अगर सबसे पवित्र कोइ रोजा होता है तो वो इसी मुहर्रम के महीने में ही होता है। इसे इस्लामिक कैलेंडर यानि हिज़री भी कहते हैं जिसकी शुरुआत 622 ईस्वी में हुई थी। हिजरी की माने तो एक चंद्र कैलेंडर में 354 या 355 दिनों का एक साल होता है जबकि सामान्य़तः एक साल में दिनों की संख्या 365 होती है।

मुहर्रम को क्यों कहते हैं मातम का महीना

इस्लाम धर्म के अनुयायियों की माने तो इस मुहर्रम के महीने को मातम का महीना कहा जाता है। कहते हैं कि सन् 680 में इसी महीने में कर्बला नामक स्थान पर एक धर्म युद्ध हुआ था, जो पैगम्बर हजरत मुहम्म्द स० के नाती तथा इब्न ज़्याद के बीच लड़ा गया था। इस धर्म युद्ध में असली जीत हज़रत इमाम हुसैन अ० की हुई थी प‍र जाहिरी तौर पर इब्न ज़्याद के कमांडर शिम्र ने हज़रत हुसैन रज़ी० और उनके सभी 72 साथियों (परिवार वालो) को शहीद कर दिया था। जिसमें उनके छः महीने की उम्र के पुत्र हज़रत अली असग़र भी शामिल थे। इसके बाद से ही तमाम दुनिया के ज्यादातर मुसलमान और दूसरी क़ौम कुछ लोग भी इस माह में इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत का ग़म मनाकर उनको याद करते हैं। 

क्या है इस्लामी हिज़री कैलेंडर

इस इस्लामी हिज़री कैलेंडर को लेकर लोगों के बीच ढेर सारे मत सुनने को मिलते हैं। कहा जाता है कि इस कैलेंडर में 354 या 355 दिन ही होते हैं। इसमें चंद्रमा का विशेष महत्व है इसलिए इसे चंद्र कैलेंडर भी कहते हैं। इस्लाम के अनुयायियों की माने तो इसमें दिन सूर्यास्त से शुरू होता है और अगले सूर्यास्त पर खत्म होता है। इस तरह से देखें तो हर इस्लामी दिन की शुरुवात रात के समय से होती है और दिन के उजाले के अंत में यह समाप्त होता है।

क्यों निकाला जाता है ताज़िया का जुलूस

इस्लाम के अनुयायियों की माने तो तत्कालीन बादशाह तैमूर लंग ने हिज़री के इस मौके पर ताजि़या के इस जुलूस निकालने की परंपरा की शुरुवात की थी। तब से ही इसे मातम का दिन कहते हैं क्याेकि इसी दिन को शिया मुसलमान इमामबाड़ों में ताजि़या लेकर जाते हैं और अपने क़ौम के लोगों के साथ मिलकर इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत का मातम मनाते हैं।

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